दुःखो से ही सुखो का मूल्य
फतेहगढ़ केंद्रीय
करागार से 6 / 2 / 1976 को स्वयंसेवक द्वारा अपनी पत्नी को लिखे गये पत्र का कुछ
स्फूर्तिप्रद अंश इस प्रकार का था |
इन्हें अपनी पत्नी
का पत्र मिला जिसे पढ़कर उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई | उनके जैसी पत्नी पाकर वे धन्य
हो गये थे | सुख – दुःख तो लगे रहेंगे परन्तु उन्होंने मुसीबत में हिम्मत नही हारी
थी और उन्हें भी हिम्मत बंधायी थी | यदि जीवन में दुःख न आये तो सुखो का भी पता
नही चलता |
उन्होंने लिखा कि
क्या क्षमा मांगकर वे अपनी बदनामी करवाते ? और यदि उनकी बदनामी होती तो उनकी पत्नी
की भी बदनामी होती | जैसे कुछ लोगो ने लिखकर दिया था , उनके अखबार में नाम भी छपे
थे और वे समाज में मुह दिखने के लायक भी नही रहे थे |
उनकी पत्नी की
तरफ से कोई पत्र नही था | इससे उनके मन में चिंता हुई कि कही उनके ऊपर कुछ गलत असर
न हो गया हो किन्तु उनकी पत्नी के पत्र ने स्वयंसेवक का मन प्रसन्न कर दिया था |
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