Thursday, 27 February 2025

नेहरूजी के सपने

 नेहरूजी के सपने

5 अक्टूबर 1937 के “माडर्न रिव्यु” में ‘राष्ट्रपति जवाहरलालजी की जय’ नाम का एक लेख छपा था | ऐसा माना जाता है कि वह नेहरूजी का ही लिखा हुआ था | उसमें लिखा था कि :-

“बस थोडा सा मोड़ दिया नही कि जवाहरलालजी तानाशाह बन सकता है, क्योंकि जनतंत्र की धीमी चाल उसे पूर्णतः अमान्य है | वह समाजवाद और जनतंत्र की नारेबाज़ी अवश्य ही करता रहेगा, क्योंकि वह जानता है कि तानाशाही को इन्हीं शब्दप्रयोगो ने चढ़ाया और बढ़ाया है | बाद में उन्हें फेंका गया |

कार्य शीघ्र करने की उसकी तीर्व इच्छा रहती है | जो उसे अप्रिय हो, उसे वह एक ही फटकारे से उड़ा देता है और वहाँ नयी चीज प्रस्थापित करता है | मंदगति जनतंत्र उसे कभी नही भायेगा | क्या यह संभव नही कि जवाहरलाल खुद को सीजर बनाने के स्वप्न देखे ?”

जिन बातों के नेहरूजी ने केवल स्वप्न में देखे थे, उन्हें उनकी पुत्री ने प्रत्यक्ष में उतार दिया था |

असहमति के प्रति पूर्ण असहिष्णुता, सत्ता के केन्द्रीकरण की वृत्ति, सक्षम तथा प्रभावी सहयोगियों के पर काटने तथा चाटुकारों को बड़प्पन देने की नीति, सरकार और पार्टी दोनों को अपनी मुठ्ठी में रखने की लालसा, आलोचना के प्रति असहनशीलता, अपने को बचाने हेतु अपने सहयोगियों को बलि का बकरा बनाने की कृतघ्नता आदि विकृतियाँ, जो आगे चल कर इंदिरा जी के चरित्र में विष्वल्ली की भाति फैली , वे उन्हें बचपन से ही प्राप्त हुई थी |  

Monday, 24 February 2025

कारण – परंपरा

 कारण – परंपरा

सामान्यतः यह माना जाता है कि दिनांक 12 जून 1975 को प्रयागराज (इलाहाबाद) उच्च न्यायालय द्वारा दिए गये निर्णय के कारण ही श्रीमती गाँधी ने यह अतिवादी पग उठाया था | किन्तु वास्तव में इसके पीछे एक लंबी कहानी थी | नेहरू खानदान का स्वभाव, कांग्रेस का ढाँचा, बड़े-बड़े नेताओं का रवैय्या,इंदिराजी का पूर्वचरित्र, उनकी कार्यशैली, बंगला देश की विजय से उत्पन्न अभियान, थोथे नारों की कलई खुलने के कारण जनता का उभडा हुआ रोष और असंतोष, गुजरात का आंदोलन और कांग्रेस का पराभव, जयप्रकाशजी का राजनीतिक क्षेत्र में पुनरागमन आदि अनेक कारणों के फलस्वरूप इंदिराजी इस सीमा तक पहुँची |  

जिस वातावरण और परिस्थिति में श्रीमती गाँधी पली थी उन्ही के फलस्वरूप वे अत्यंत हठी, आत्मकेंद्रित, स्वार्थी, अपना महत्त्व बनाये रखने के लिए सजग, असहिष्णु, असुरक्षा की भावना से ग्रस्त, अहंकारी, दुःसाहसी तथा निर्मम बनी थी |

इंदिराजी जब पंद्रह वर्ष की थी, तब स्वयं नेहरूजी उनके बारे में अपनी बहिन श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित को देहरादून जिला कारागार से लिखा था –“वह हम दोनों ( माता-पिता की) तथा अन्यो की पूर्णतः उपेक्षा करती है | ऐसा क्यों है ? मुझे लगता है कि इंदु असामान्यतः कल्पना-जगत में विहार करती है | वह स्वयंकेन्द्रित अथवा आत्मलीन है | सचमुच, मुझे ऐसा लगता है कि अनजाने में ही वह बहुत स्वार्थी बन गयी है….”

जिद्दीपन तो उनमें कूट-कूट कर भरा था | उस समय इंदिरा ऑक्सफ़ोर्ड में थी | नेहरुजी उन्हें वापस ले आये, उन्होंने वहा से निकलते हुए कहा कि “मैं यहीं रहना चाहती हूँ, आपके साथ नही आना चाहती | यदि आप अनुमति नही देते, तो भले ही मैं चलूंगी पर आपसे बोलूंगी नहीं |” नेहरूजी ने सोचा – आखिर बच्ची है,यो ही कह दिया होगा | परंतु नेहरूजी हैरान रह गये कि उनकी प्रिय इंदु न तो पंद्रह दिनों की जहाजी यात्रा में और न बंबई से प्रयाग तक के रेल प्रवास में उनसे बोली | अंततः नेहरूजी ने हार मान ली और उन्होंने तुरंत ही इंग्लैण्ड भेज दिया था |

इंदु ने स्वयं अपनी इच्छा से फ़िरोज़ गाँधी से विवाह करने का निश्चय कर लिया था | यह विवाह पिता को तथा उनकी बुआओ को कतई पसंद नही था | पिता और महात्मा गाँधी दोनों ने इंदु को समझाया, परन्तु वह नही मानी | मार्च 1982 में फिरोज-इंदिरा विवाह प्रयाग में बहुत सादे ढंग से संपन्न हुआ था | इंदिराजी का वैवाहिक जीवन भी सुखी नही था |

इंदिराजी ने स्वयं भी एक स्थान पर कहा था –“राजनीतिक संघर्षो के कारण मेरा बचपन असामान्य परिस्थिति में कटा | मैं सदैव अकेलापन और असुरक्षितता अनुभव करती थी |”

अतः पंडित नेहरू ने एक प्रसंग पर कहा था, ”यह इतनी जिद्दी है कि इसे कोई भी पद नही दिए जाने चाहिए |”

कराल रात्रि की ओर - लोकतंत्र की हत्या

 कराल रात्रि की ओर

आपातकाल के कुछ महीने पहले जयप्रकाशजी ने सेकड़ो भाषण दिए तथा कुछ दिन पहले से वे सतत् भ्रमण कर रहे थे तथा अनेक नगरो और ग्रामो में जाकर वे जनजागरण कर देश की परिस्थिति से सब को अवगत करा रहे थे | विभिन्न दलों के नेताओं से भी विशेष रूप से मिलते थे और उनसे साग्रह निवेदन करते रहे कि “देश हिट के लिए सभी विरोधी पक्षों को एक जुट हो जाना चाहिए अन्यथा देश में तानशाही स्थापित होगी, घरानाशाही चलेगी, जनता दुखी हो जायेगी |”

दि.25 जून 1975 की शाम को जयप्रकाशजी बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे थे | सायंकाल रामलीला मैदान, सभा में उन्हें जो उत्साह दिखाई दिया, जिससे उनका मन गदगद हो उठा, उस विशाल जनसमूह के सम्मुख वे बोल रहे थे, उनका भाषण आपही प्रभावी हो गया था | सभा आयोजक भी संतुष्ट थे | उस विशाल जनसभा से हज़ारो लोग लौट रहे थे, तब प्रत्येक धूलिकण से मानो यही माँग उठ रही थी कि “प्रधानमंत्री त्यागपत्र दे और वास्तविक गणतंत्र की परंपरा का पालन करे |” आपही लोग नारे लगा रहे थे –“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है|”  

जनता को नया प्रकाश दिखाई दे रहा था, देश को तानशाही से बचाने के लिए मार्गो का निर्माण हो रहा था, तभी 1,सफदरगंज भवन इंदिराजी के बंगले पर कुटिल योजनाओं को आकार देकर, लोकतंत्र की हत्या का जघन्य षड्यंत्र रचा जा रहा था | उस रात्रि जब सारा देश सो रहा था, तब श्रीमती गाँधी को सत्ता में बने रहने के लिए चंडाल-चौकड़ी के सदस्य सिद्धार्थशंकर राय,संजय गाँधी, बंसीलाल, धवन आदि भारत के 28 वर्षीय प्रजातंत्र को समाप्त करने के षड्यंत्र को अंतिम रूप दे रहे थे | षड्यंत्र की पूर्वयोजना बना लेने के बाद श्रीमती गाँधी और सिद्धार्थशंकर राय राष्ट्रपति भवन चले गये |

राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली भी इस बात से अवगत थे कि उन्हें उस रात कुछ विशेष बेढंगा कार्य करना था | वे तो प्रधानमंत्री के एहसान के भार से पहले ही दबे हुए थे | भारत का सर्वोच्च पद उन्होंने अपनी योग्यता से नही, श्रीमती गाँधी की कृपा से मिला था | राष्ट्रपति भवन में सिद्धार्थशंकर ने जब राष्ट्रपति के समक्ष आपातकाल विषयक विषद विवेचन किया तब उन्होंने राष्ट्रपति पद के उत्तरदायित्व को भुलाकर अपने व्यक्तिगत लाभ को संभालना उचित समझा और बिना कोई ना-नुच करते हुए उन्होंने चुपचाप धवन के लाये हुए आपातकाल के प्रारूप पर हस्ताक्षर कर दिए थे |

कालचक्र उल्टा घुमने लगा,उस समय मध्य रात्रि के लिए केवल पंद्रह मिनट शेष थे | देशभर में प्रमुख नेताओं को बंदी बनाने के आदेश मुख्यमंत्रियों तथा पुलिस अधिकारियों को दिए जा रहे थे और साथ ही आतंरिक आपातकाल की घोषणा का प्रारूप तैयार किया जा रहा था |

अतः उसी रात सम्पूर्ण देश में गणतंत्र की वासंतिक बयार बंद हो गयी और एकाधिकारी सत्ता की ठिठुराने वाली, जलाने वाली, विषम हवाए बहने लगी थी |     

Thursday, 20 February 2025

स्वयंसेवको के आपस में लिखे पत्र : लालकृष्ण आडवाणी द्वारा कार्यकर्ताओं को लिखा पत्र

 तानाशाही से समझौता नही

लालकृष्ण आडवाणी ने बंगलौर कारागार से 15/ 8/ 1976 को कार्यकर्ताओं को लिखा था |

लालकृष्ण आडवाणी ने अपने पत्र ने लिखा कि स्थान-स्थान पर उन्हें शारीरिक यातनाए सहन करनी पड़ी थी | अनेक बंधुओ ने सीचको के पीछे प्राण गँवाये थे | सैकड़ो परिवार आर्थिक दृष्टि से बरबाद हो गए थे | लोकतंत्र की पुनःस्थापना के लिए चल रहे वर्तमान यज्ञ में उनके कार्यकर्ताओं ने जो बलिदान किया था, उस पर वे गर्व कर सकते थे | जनसंघ के संस्थापक डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी लोकतंत्र के अनन्य उपासक थे | उनके अनुयायी तानाशाही के साथ समझौता नही कर सकते थे | तब ऐसे सहसो कार्यकर्ता थे जो सर्वस्व की बाजी लगाकर मैदान में उतरे हुए थे |

उन्होंने कार्यकर्ताओ को संबोधित करते हुए यह भी लिखा कि “हो सकता है आप भी उनमे से एक है | यदि अब तक नहीं है, तो इसी क्षण शामिल हो जाइए” |

इस पत्र द्वारा वे इस बात पर बल देना चाहते थे कि उनकी मर्यादा में रहते हुए भी वे कई प्रकार से लोकतंत्र की सेवा कर सकते है | सबसे बड़ी सेवा है, चारों ओर भय के वातावरण को विदीर्ण करना | अपने व्यवसाय-क्षेत्र में, अपने मित्रवर्ग में, सदैव सत्य, साहसी तथा स्वाभिमान की भाषा बोले | ऐसे वातावरण का निर्माण करे जिससे चापलूसी और चाटुकारिता के लिए लोगो के मन में सहज ग्लानि पैदा हो |

अतः गत वर्ष कार्यकर्ताओं ने जितना कष्ट सहा था, वह वास्तव में लोकतंत्रीय मान्यता के लिए दी गयी कीमत थी | इसके अलावा भी उनकी एक अपेक्षा थी कि वे संघर्षरत कार्यकर्ताओ का तन-मन-धन से सहयोग करे |   

Wednesday, 19 February 2025

स्वयंसेवको के आपस में लिखे पत्र : अटलविहारी वाजपेयी द्वारा स्वयंसेवक बंधु को लिखा पत्र

 न दैन्यं न पलायनम्

अटलविहारी वाजपेयी ने स्वयंसेवक बंधु को 25/09 /1976 को आयुविज्ञान संस्थान अंसारी नगर, नयी दिल्ली से लिखा था |

पत्र की शुरुआत करते हुए अटलजी ने लिखा कि पत्र में क्षीरसागरजी के आकस्मिक देहावसान का समाचार सुनकर गहरा धक्का लगा था | गत 16 महीनो के संघर्षकाल में जो कार्यकर्ता हमेशा के लिए विदा हुए थे , उनकी समृति सबके ह्रदयो में सदैव ताज़ा रहेगी | अपने आदर्शो और विश्वासों के लिए काम करते हुए स्वाभाविक रूप से मृत्यु का वरण करने वाले प्रिय होते किन्तु जो युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त होते वे लोग तो प्रेरणादायक बन जाते है |

आगामी 29 अक्टूबर को भारतीय जनसंघ उनके जीवन के 25 वर्ष पूर्ण कर लेंगे | आश्रम व्यवस्था के अनुसार 25 वर्ष के बाद व्यक्ति का परिवार-जीवन प्रारंभ होता | संगठन के नाते अब उन्हें भी राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय में निष्ठा रखनेवाले सभी भारतीयों को, बिना किसी भेदभाव के, एक परिवार मानकर चलना था और तदनुसार उन्हें अपना दायित्व का निर्वाह करना था |

जनसंघ के संस्थापक प्रधान, हुतात्मा डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने संसद में राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक गुट का गठन कर जिस ऐतिहासिक प्रक्रिया को प्रारंभ किया था, अब उसे अंतिम रूप देने का अवसर आ गया था |

25 वर्ष के कालखंड में उन्होंने अनेक उतार-चढ़ाव देखे थे | प्रारंभिक विफलता ने उन्हें निराश नही किया, प्रयत्नसाध्य सफलता हमें विवेकभ्रष्ट नही कर सकी थी | राष्ट्रीय संकट के प्रत्येक अवसर पर वे प्रथम पंक्ति में रहते थे | उस दिन, जबकि एक भयावह अंधेरा उनकी अस्मिता के आलोक को निगल जाने को तुला था,उन्हें ध्येयसिद्धि के लिए जीने, जूझने और आवश्यकता पड़ने पर मर मिटने के उनके संकल्प को दोहराना होगा |

शहीद की मौत मरने का सौभाग्य सब को कहाँ मिलता ? अपने पत्र के माध्यम से सभी काराबद्ध कार्यकर्ताओं-बहनों और भाइयो-को उन्होंने शुभकामाए और आदर दिया और लिखा कि उनका कष्ट-सहन व्यर्थ नही जाएगा |

“न दैन्यं, न पलायनम्” – अर्जुन की यह दोहरी प्रतिज्ञा ही सबका उद्देश्य होना चाहिए | काया को कैद कर, या दिल को दुखाकर जो यह समझते है कि मुक्ति की माँग को मिटा देंगे, उन्हें हमेशा पछताना पड़ता है | पशुबल परास्त होता है और अंततः आत्मबल की विजय होती है |

Sunday, 16 February 2025

स्वयंसेवको के आपस में लिखे पत्र : शेषाद्रिजी द्वारा नागभूषणम् जी को लिखा पत्र

 नयी किरण चमकने लगी है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगे जब एक वर्ष हुआ , ठीक उसी दिन 8 / 7 / 1976 को शेषाद्रिजी ने बंगलौर के कारागार में नागभूषणम् को पत्र लिखा , उसमे उन्होंने बीते हुए वर्ष का सिहावलोकन किया है | इस पत्र की भाषा और आशय , दोनों ही स्फूर्तिदायक है |

उस वर्ष में घटित बातो का जब वे स्मरण करते थे , तब उनका मन अनेक स्फूर्तिप्रद घटनाओं से भर जाता था | जैसे – जैसे दिन बीतते जाते , वैसे – वैसे उनका दैनदिन जीवन , उनकी कार्यशैली , उनकी चर्चा , उनकी हलचलों आदि पर एक नयी मुद्रा अंकित हो रही थी | तब वे जीवन की यही रीति बननेवाली थी | किसी समय वातावरण में घुटन थी , कड़ाई थी , लोग दूर रहते थे , उसमे ढिलाई आ गयी थी | हलचल आरंभ हो गयी थी | पुराने कार्यकर्ताओं में नयी किरण चमकने लगी थी | उनके अतिरिक्त , संघर्ष के लिए समुद्यत नये कार्यकर्ताओ का समूह भी सामने आ रहा था |

आश्चर्य की बात यह थी कि मंडली में कोई भी निराश नहीं दिखाई देता था | किसी के भी मन में पराजय की छाया तक नही थी , परन्तु बाहर के लोगो में , अधिकतर बुद्धिजीवियों में , वह काली छाया गहराई से मंडरा रही थी | घेरे के बाहर निकलने का मार्ग किसी को भी मालूम नही था |

उनके बारे में सब के मनो में बहुत आदर था , परन्तु वे कुछ दुखी होकर कहते थे , “उनके इस संघर्ष में उग्रता नही है|” वे ऐसा क्यों कहते थे , उसका कारण शेषाद्रिजी और उनके साथी भलीभांति जानते थे | दीर्घकाल तक चलनेवाले संघर्ष का तंत्र ( प्रविधि ) समझने की मानसिक क्षमता उनमे नही थी ...... तर्क या चर्चा से उनका मत बदला नही जा सकता थे , वे यदि सदासर्वदा दक्षता , तत्परता तथा एकता का अवलंब करेंगे तो उनका मत – परिवर्तन स्वयं ही होगा ऐसा शेषाद्रिजी का मानना था | और संघर्ष की हृदयस्पर्शी सहजात स्मर्तियाँ भी कुछ कम प्रभावी नहीं थी , बाहर लोग जो बोल रहे थे और उनके मन में जो कल्पना घर कर रही थी , वह एक उत्साहवर्धक चिहन था ......    

Friday, 14 February 2025

पारिवारिक पत्र : यादवराव जोशी द्वारा अपने पिताजी को लिखा पत्र

 आपका अयोग्य पुत्र नही कहलायेगा

यादवराव जोशी बंगलौर कारागार में बंद थे | नागपुर में उनके वृद्ध पिताजी जब अत्यंत अस्वस्थ हो गये , तब यादवरावजी को सूचित किया गया था | यादवरावजी ने उत्तर में निम्नलिखित तार भेजा |

भगिनी तारा का भेजा हुआ तार प्राप्त हुआ था | वे अत्यवस्थ हो गये थे , यह जानकार बहुत अधिक दुःख हुआ था | वे जीवनभर व्यक्तिगत रूप से उनकी कोई भी सेवा नहीं कर सके थे | कम से कम , अंतिम समय में उनके चरणों में उपस्थित रहने की यादवराव जोशी की इच्छा थी | लेकिन दिखता था कि भाग्य की कुछ दूसरी ही इच्छा थी | वे यदि मुक्त होते  तो हवाई जहाज से नागपुर पहुँचते और उन्हें साष्टांग प्रणाम करते | परन्तु वे जानते थे कि यादवराव जोशी इस समय बंदी थे और गुलाम भी थे | उनके पवित्र चरणों को ऐसे अपवित्र हाथो से वे स्पर्श नही करना चाहते थे |

यादवराव जोशी  ने अपने पिता को संबोधित करते हुए अपने पत्र में लिखा कि उस समय यादवराव जोशी मातृभूमि की जो भी सेवा कर रहे थे , उसका श्रेय उन्ही को जाता था | उनकी दी हुई शिक्षा तथा प्रेमभरे आशीर्वादों के कारण ही वे यह कर सके थे | कृपया वे यादवराव जोशी पर चिरंतन आशीर्वादों की वर्षा करे और उसी के फलस्वरूप उनकी सम्मति से चुने हुए इस दिव्य पथ पर वे आगे चलते रहेंगे , ऐसी उन्होंने अपने पिता से प्रार्थना भी की थी |

यादवराव जोशी ने अपने पिता और माता को साष्टांग प्रणाम किया और आश्वासन भी दिया कि वे कभी भी तेजस्वी पिता का अयोग्य पुत्र नही कहलायेंगे तथा चारों बहनों को और सब निकट के प्रिय रिश्तेदारों को प्रेमभावना भी ज्ञात की |

अतः ईश्वर की कृपा से यदि यादवराव जोशी इस दुर्धर बीमारी से बच जाते तब निश्चित जानिए की वहा से छुटते ही , एक मुक्त नागरिक के रूप में वे नागपुर दौड़ते हुए जायेंगे और उनके चरणों में लिपट जायेंगे | उनका शत शत प्रणाम , पुनरिप स्वीकार करे ! यह भी उन्होंने अपने पत्र में लिखा था |

Tuesday, 11 February 2025

पारिवारिक पत्र : मधु दंडवते द्वारा सौ . प्रमिला को लिखा पत्र

 मधु दंडवते ने सौ . प्रमिला को लिखा

मधु दंडवते ने अपने पत्र में लिखा कि बंगलौर में अपराधी कैदियों की संख्या बड़ी थी | आजनम कारावासी भी बहुत थे | वे लोग गुलाब के पौधों को उनके अश्रुजल से सींचते थे | सुगंधमय गुलाब के फूलों के खिलते हास्य में वे उनके अश्रुओं का प्रतिबिंब देखते थे | आजन्म कारावास भोगनेवालो की करूण तथा नाट्यपूर्ण कथाए सुनकर प्राण तिलमिलाते थे |

1918 में युद्ध के विरोध में प्रचार करने के फलस्वरूप बर्ट्रेण्ड रसेल को साढ़ेचार मास की सजा हुई थी | उस समय इन अपराधिक ढंग से प्रकट किये थे , उनकी वे अनुभूति ले रहे थे |

उन्होंने अपने पत्र में यह भी लिखा कि तंतुवाद्य का एक तार छेड़ने पर अन्य तार भी झंकृत हो उठते है ...... विज्ञान का यह नियम मानव – मन पर भी कदाचित लागू  है  , इसलिए उनके मन में स्पंदन अन्य मनो में भी कम्पन उत्पन्न करते दिखाई पड़ती थी ......

अतः वहां के एकांत में चिंतन , मनन , लेखन , वाचन ही समय व्यतीत करने का मार्ग था | इसलिए तो “मार्क्स और गाँघी” पुस्तक वे लिख सके |

Monday, 10 February 2025

पारिवारिक पत्र : डी . जे . शिवराम द्वारा अपने पिता को लिखा पत्र

 एक लाख में हम भी एक

यह पत्र डी . जे . शिवराम जी ने अपने पिता को लिखा था | वे संघ के युवक कार्यकर्ता थे | वे गुलबर्गा केन्द्रीय कारागार में बंदी थे | उनके पिता ने , पारिवारिक संकट , नगर में जल का अभाव , घर के सदस्यों की बीमारी आदि बातो का वर्णन करते हुए पुत्र को बहुत ही हृदयद्रावक पत्र लिखा |

उस पत्र का तत्काल उत्तर देते हुए शिवराम जी ने अपने पिता को लिखा कि उनके पिता का कहना सही था | उनके पारिवारिक जीवन पर अनेक संकट छाये हुए थे | अनेक अड़चनों का सामना करना पड़ रहा था परन्तु ये बाते केवल उनके घर पर लागू हो , ऐसी बात नहीं थी | यह सब जिन्हें भोगना पड़ रहा था , ऐसे एक लक्ष परिवारों में उनका परिवार था |

जब करोड़ो लोग मृतको के समान जीवन जी रहे थे तब सुख की आशा करना चन्द्र को पाने की इच्छा करने के समान ही था | कोई अदृश्य शक्ति उनके हाथ पकड़कर उनका मार्गदर्शक कर रही थी | वे न्याय की रक्षा के लिए कार्य कर रहे थे , इस बात का उन्हें समाधान था | 

अतः इस पथ से दूर हट जाना उनके लिए बहुत अयोग्य था , ऐसा उनका दृढ़ विश्वास था |