नेहरूजी के सपने
5 अक्टूबर
1937 के “माडर्न रिव्यु” में ‘राष्ट्रपति जवाहरलालजी की जय’ नाम का एक लेख छपा था
| ऐसा माना जाता है कि वह नेहरूजी का ही लिखा हुआ था | उसमें लिखा था कि :-
“बस
थोडा सा मोड़ दिया नही कि जवाहरलालजी तानाशाह बन सकता है, क्योंकि जनतंत्र की धीमी चाल
उसे पूर्णतः अमान्य है | वह समाजवाद और जनतंत्र की नारेबाज़ी अवश्य ही करता रहेगा,
क्योंकि वह जानता है कि तानाशाही को इन्हीं शब्दप्रयोगो ने चढ़ाया और बढ़ाया है |
बाद में उन्हें फेंका गया |
कार्य
शीघ्र करने की उसकी तीर्व इच्छा रहती है | जो उसे अप्रिय हो, उसे वह एक ही फटकारे
से उड़ा देता है और वहाँ नयी चीज प्रस्थापित करता है | मंदगति जनतंत्र उसे कभी नही भायेगा
| क्या यह संभव नही कि जवाहरलाल खुद को सीजर बनाने के स्वप्न देखे ?”
जिन
बातों के नेहरूजी ने केवल स्वप्न में देखे थे, उन्हें उनकी पुत्री ने प्रत्यक्ष में
उतार दिया था |
असहमति
के प्रति पूर्ण असहिष्णुता, सत्ता के केन्द्रीकरण की वृत्ति, सक्षम तथा प्रभावी
सहयोगियों के पर काटने तथा चाटुकारों को बड़प्पन देने की नीति, सरकार और पार्टी
दोनों को अपनी मुठ्ठी में रखने की लालसा, आलोचना के प्रति असहनशीलता, अपने को
बचाने हेतु अपने सहयोगियों को बलि का बकरा बनाने की कृतघ्नता आदि विकृतियाँ, जो
आगे चल कर इंदिरा जी के चरित्र में विष्वल्ली की भाति फैली , वे उन्हें बचपन से ही
प्राप्त हुई थी |