अप्रियस्य च पथ्यस्य
यह पत्र
सन्यासी विश्वेशतीर्थ स्वामीजी ने अत्यधिक खेद के साथ 12 / 7 / 1975 को लिखे गये पत्र का श्रीमती
गाँधी की ओर से कोई उत्तर न मिलने पर लिखा |
वे अपने पत्र
के माध्यम से देश में हो रही कृतियों पर रोशनी डालना चाहते थे | उनके ह्रदय में
श्रीमती गाँधी और राष्ट्र दोनों के लिए समान आदर की भावना थी परन्तु वे जानते थे
कि उनके इस पत्र से श्रीमती गाँधी के मन में बहुत क्रोध उत्पन्न होगा | वे अपनी
कर्तव्यभावना से इस निष्कर्ष पर पहुचे कि उन्हें निष्पक्ष होकर बोलना चाहिए , फिर
वह कितना भी कटु क्यों न लगे | उनकी हार्दिक इच्छा ऐसी थी कि जो बीत गया सो बीत
गया अब श्रीमती गाँधी को जनतंत्र का नाटक छोड़ जो स्वातंत्र्य उन्हें प्राप्त
था वही जनता को प्रदान करना चाहिए |
उन्होंने
श्रीमती गाँधी से प्रश्न करते हुए लिखा कि क्या श्रीमती गाँधी भारत को नया हंगरी
और चेकोस्लोवाकिया बनाना चाहती है ? क्युकि जब शेख मुजीबुर्हमान ने समाचार पत्रों
का स्वातंत्र्य छीन जनता पर एकपक्षीय एकाधिकार लादा था उसके दुखदायी परिणाम बंगला
देश भुगत रहा था जिससे यह स्पष्ट था कि एक बार यदि जनतंत्र की श्रेष्ठ उच्च परंपरा
टूट जाए तो उसकी पुनः स्थापना करना बहुत कठिन हो जाता है |
उन्होंने पत्र
में श्रीमती के भाषण में प्रयोग हो रहे शब्दों पर ध्यान देने की बात भी कही क्युकि
सन् 1959 में पकिस्तान के तानाशाह अयूबखान ने जिन शब्दों का प्रयोग किया था ,
श्रीमती गाँधी भी जनतंत्र तथा विरोधी पक्ष के संबंध में ठीक उन्ही शब्दों का
प्रयोग कर रही थी | सन्यासी ने श्रीमती गाँधी से आशा करते हुए लिखा कि वे पकिस्तान
और बंगला देश की घटनाओ से कुछ सबक सीखेंगी और जनतांत्रिक परम्पराओ को बचाएंगी |
अंत में
उन्होंने एक संस्कृत श्लोक को भी सुभाषित किया :
सुलभाः पुरुषाः
राजन्ं प्रियवादिनः |
अप्रियस्यच पथ्यस्य
वक्ताश्रोता च दुर्लभाः ||
अर्थात :– मुँह
पर मीठा बोलने वाले बहुत लोग हुआ करते है | परन्तु अप्रिय होने पर भी जो हितकर हो
, ऐसा बोलनेवाले न वक्ता मिलते है और न ही सुननेवाले श्रोता मिलते है |
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