Friday, 29 November 2024

मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण को ना. ग. गोरे का पत्र

निजामशाही के विरोध में क्यों लड़े ?

यह पत्र ना. ग. गोरे ने मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण को लिखा था 

उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि उस समय मुख्यमंत्री जी की चमड़ी किसी बालक की चमड़ी से भी कोमल बन गई थी , इसलिए केवल पिछले डेढ़ सौ वर्ष के इतिहास का स्मरण करा देने से अथवा " समाचारपत्रों की पूर्व परीक्षा अंग्रेजों ने कभी नहीं की थी " , इतना भर कह देने पर मुख्यमंत्री ने " हाय राम , लहूलुहान कर दिया " , ऐसा ढोंग रचा था । उन्होंने ( मुख्यमंत्री ) निजाम की राज्यपद्धति निकट से देखी थी । उनका बंबई का व्याख्यान असंयमित था , बेताल था , ऐसा यदि आपका ( मुख्यमंत्री ) का मत था तो न्यायाधीश के सामने  उन्हें खड़ा क्यों नहीं करते ?

उससे संयमशील भाषण की व्याख्या तो कम से कम सब जान जाते .......

उन्होंने आगे पत्र में लिखा कि इन सब बंधनों का मूक पालन जनता को करना चाहिए , ऐसी यदि मुख्यमंत्री की इच्छा थी तो वे निजामशाही के विरोध में क्यों खड़े हो गए थे ?

अतः वे इस प्रश्न का उन्हें उत्तर दे , ऐसी ना. ग. गोरे जो की मुख्यमंत्री जी से प्रार्थना थी ।

Wednesday, 27 November 2024

शंकरराव चव्हाण को मृणाल गोरे का पत्र

 जनता का अपमान न करे

मृणाल गोरे ने यह पत्र शंकरराव चव्हाण को लिखा था |

उन्होंने पत्र में लिखा था कि उस समय की दंभपूर्ण असत्य प्रचार – यात्रा में बुद्धिवादी लोगों को सहभागी हो जाना चाहिए – ऐसी उनकी केवल इच्छा ही नही आज्ञा थी | इंदिरा गाँधी की हुकुमशाही के सम्मुख गर्दन झुकानेवाले लोग इस देश में थे , इसका इस राष्ट्र को यथार्थ अभिमान था |

मृणाल गोरे ने एक बात की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए लिखा कि जितनी चापलूसी शंकरराव चव्हाण कर रहे थे , वे इतना अवश्य समझ ले कि जब उनकी आवश्यकता नहीं रहेगी तब किसी क्षुद्र जंतु के समान चिमटे में पकड़कर बाहर फेंक दिया जायेंगा |

अतः जब तक सिर ऊँचा कर अवज्ञा करनेवाले लोग इस देश में है , तब तक ही यह भारत कहलाने योग्य रहेगा , यह शब्द भी मृणाल गोरे के पत्र में लिखे हुए थे |

Tuesday, 26 November 2024

सिनेमा कलाकारों को नानाजी देशमुख का पत्र

 कला का उपयोग देश बचाने में करे

देश की गंभीर परिस्थिति ने नानाजी देशमुख को यह पत्र लिखकर सिनेमा कलाकारों तक पहुचने के लिए बाध्य किया था क्योंकि अपने देश के इतिहास में एक बड़ा विचित्र समय आ गया था ।

नानाजी ने सिनेमा कलाकारो को मित्र कहकर संबोधित करते हुए लिखा कि उन्होंने समाज में एक विशेष स्थान प्राप्त किया था और वे युवाओं के गतिनियामक भी थे | सामान्य जनता उनसे ही चाल - ढाल सीखती थी । वे विशाल जन समूह का मनोरंजन करते साथ ही जनता के मन का बोझ भी हल्का करते थे ।

नानाजी ने उनसे प्रश्न करते हुए लिखा कि क्या वे लोग अपनी दृष्टि को मनोरंजन तक सीमित रखकर जनता को केवल जीवन की समस्याओ को टालना ही सिखाएंगे ?

समय की मांग थी कि कलाकारों को निराशा के स्थान पर विचारपूर्ण आशा उत्पन्न करनी चाहिए । यदि सब कंधे से कंधा भिड़ाकर धंसे हुए पहिए को ऊपर नहीं उठाते तो संपूर्ण देश का रथ तानाशाही और विदेशी अधिकार के कीचड़ में धसकर रह जायेगा ।

श्रीमती गांधी की तानाशाही की एक विशेषता यह थी कि उसके मूल में किसी भी प्रकार का ध्येयवाद नहीं था । सत्तालालस के कारण उन्होंने अपने देश को सोवियत संघ के पंजों में बहुत अधिक फंसा लिया था । राष्ट्रभर में अब अंधेरा छाया हुआ था । तानाशाही और विदेशी पकड़ की गर्त में वह लुढ़कता हुआ चला जा रहा था ।

उनका कहना था कि यदि वे निष्क्रिय बनकर बैठे रहे तो आने वाली पीढ़ी उन सब को कोसेगी और वह न्यायसंगत भी होगा क्योंकि उस समय की निष्क्रियता आनेवाली पीढ़ियों की स्वतंत्रता को पंगु बना देगी ।

अंत में उन्होंने कलाकारो से अनुरोध भी किया कि जनता के चलाए युद्ध में वे भी सहभागी बने ।

Monday, 25 November 2024

श्रीमती गाँधी को जयप्रकाशजी का पत्र

 प्रधानमंत्री “सहायता-निधि” से सहायता लेने से इनकार

यह पत्र जयप्रकाश जी ने श्रीमती गाँधी को 11 / 06 / 1976 को कैम्प मुंबई से  उनके डायलिसिस यंत्र खरीदने के लिए “सहायता-निधि” से जो नब्बे हज़ार रूपये भेजे गये  थे , उस संदर्भ में  लिखा था | उन्होंने श्रीमती गाँधी को विश्वास दिलाते हुए लिखा कि वे इस पत्र को अन्यथा ना ले और उनपर सौजन्यहीनता तथा कृतघ्नता का आरोप ना लगाए , उनके मन में श्रीमती गाँधी के प्रति तनिक भी निरादर की भावना नहीं थी | 

कुछ सप्ताह पूर्व प्रोफेसर पी.बी धर की सूचनानुसार राधाकृष्णजी  ने एक मित्र को भेजा था और जयप्रकाशजी से पुछवाया था कि क्या वे श्रीमती गाँधी के द्वारा दिया गया आर्थिक योगदान स्वीकार करेंगे ? उन्होंने अपनी सम्मति भी दी परुन्तु उस समय वे ये नही जानते थे कि यह पैसे उन्हें प्रधानमंत्री सहायता  निधि द्वारा दिए जाने वाला था , वे तो यही मानकर चल रहे थे कि श्रीमती गाँधी अपनी जेब से यह सहायता दे रही थी , और थोडा विचार करने पर उन्हें समझ आया कि इतनी बड़ी रकम अपनी जेब से देना संभव नही था |

उन्होंने उस समय की स्थिति समझाते हुए लिखा कि “सहायता-निधि” की राशी पहुचने से पहले ही जनता का दिया हुआ द्रव्य तीन लाख से ऊपर पहुच गया था जिससे एक डायलिसिस यंत्र और उसकी अन्य पूरक वस्तुए , तथा साल भर की आवश्यक प्रतीत होने वाली वस्तुए भी खरीद ली गयी थी | अतः अगले साल – दो साल तक प्रतिमास खर्च करने के लिए भी  , वही द्रव्य प्रर्याप्त था |

उन्होंने आगे दो मुद्दों पर रोशनी डालते हुए लिखा कि एक यह कि  समिति में  केवल छोटी रकमे स्वीकार की जाती और दूसरा यह कि “सहायता-निधि” से राधाकृष्ण जी के पास धनावेश आने के पूर्व ही आवश्यकता से ज्यादा ही  धन संग्रह हो गया था इसलिए  “ जयप्रकाश आरोग्य निधि समिति “ ने प्रकट घोषित कर निधि – संकलन बंद कर दिया था | ऐसी परिस्थिति में “सहायता-निधि” की ओर से भेजी गयी इतनी बड़ी रकम स्वीकार करना उनके लिए उचित न था |

अंत में वे लिखते है कि वे राधाकृष्ण जी को सूचित कर देंगे कि वे “सहायता-निधि” से प्राप्त धनावेश वापस लौटा दे और श्रीमती गाँधी से आग्रह भी किया कि जिन्हें इस राशी की अधिक आवश्यकता हो उनके लिए इस “सहायता-निधि” का पैसा खर्च करे | अतः वे कृतज्ञ थे , जो श्रीमती गाँधी ने उनके स्वस्थ्य के विषय में चिंता दिखाई |

 

Sunday, 24 November 2024

विश्वेशतीर्थ स्वामीजी का दूसरा पत्र

 अप्रियस्य च पथ्यस्य

यह पत्र सन्यासी विश्वेशतीर्थ स्वामीजी ने अत्यधिक खेद के साथ  12 / 7 / 1975 को लिखे गये पत्र का श्रीमती गाँधी की ओर से कोई उत्तर न मिलने पर लिखा |

वे अपने पत्र के माध्यम से देश में हो रही कृतियों पर रोशनी डालना चाहते थे | उनके ह्रदय में श्रीमती गाँधी और राष्ट्र दोनों के लिए समान आदर की भावना थी परन्तु वे जानते थे कि उनके इस पत्र से श्रीमती गाँधी के मन में बहुत क्रोध उत्पन्न होगा | वे अपनी कर्तव्यभावना से इस निष्कर्ष पर पहुचे कि उन्हें निष्पक्ष होकर बोलना चाहिए , फिर वह कितना भी कटु क्यों न लगे | उनकी हार्दिक इच्छा ऐसी थी कि जो बीत गया सो बीत गया अब श्रीमती गाँधी को जनतंत्र का नाटक छोड़ जो स्वातंत्र्य उन्हें प्राप्त था वही जनता को प्रदान करना चाहिए |  

उन्होंने श्रीमती गाँधी से प्रश्न करते हुए लिखा कि क्या श्रीमती गाँधी भारत को नया हंगरी और चेकोस्लोवाकिया बनाना चाहती है ? क्युकि जब शेख मुजीबुर्हमान ने समाचार पत्रों का स्वातंत्र्य छीन जनता पर एकपक्षीय एकाधिकार लादा था उसके दुखदायी परिणाम बंगला देश भुगत रहा था जिससे यह स्पष्ट था कि एक बार यदि जनतंत्र की श्रेष्ठ उच्च परंपरा टूट जाए तो उसकी पुनः स्थापना करना बहुत कठिन हो जाता है |

उन्होंने पत्र में श्रीमती के भाषण में प्रयोग हो रहे शब्दों पर ध्यान देने की बात भी कही क्युकि सन् 1959 में पकिस्तान के तानाशाह अयूबखान ने जिन शब्दों का प्रयोग किया था , श्रीमती गाँधी भी जनतंत्र तथा विरोधी पक्ष के संबंध में ठीक उन्ही शब्दों का प्रयोग कर रही थी | सन्यासी ने श्रीमती गाँधी से आशा करते हुए लिखा कि वे पकिस्तान और बंगला देश की घटनाओ से कुछ सबक सीखेंगी और जनतांत्रिक परम्पराओ को बचाएंगी |

अंत में उन्होंने एक संस्कृत श्लोक को भी सुभाषित किया :

सुलभाः पुरुषाः राजन्ं प्रियवादिनः |

अप्रियस्यच पथ्यस्य वक्ताश्रोता च दुर्लभाः ||

अर्थात :– मुँह पर मीठा बोलने वाले बहुत लोग हुआ करते है | परन्तु अप्रिय होने पर भी जो हितकर हो , ऐसा बोलनेवाले न वक्ता मिलते है और न ही सुननेवाले श्रोता मिलते है | 

Friday, 22 November 2024

श्रीमती गाँधी को विश्वेशतीर्थ स्वामीजी का पत्र

 सन्यासी ने भिक्षा मांगी

यह पत्र विश्वेशतीर्थ स्वामीजी ने श्रीमती गाँधी ( इंदिरा गाँधी ) को 12 जुलाई 1975 को उडुपी से लिखा था | वे एक संयासी और पेजावर धर्ममठ के प्रमुख ( मठाधीश ) थे और सदैव मानव सेवा तथा पूर्णतः ईश्वरभक्ति में लगे रहते थे |

उन्होंने अपने पत्र में लिखा कि उन्हें किसी की प्रसन्नता – अप्रसन्नता से या राजी – नाराजी से विचलित होने का कोई कारण नही था | वे श्रीमती गाँधी का बहुत आदर करते थे और उनकी ओर बड़े विश्वास के साथ देखते थे परन्तु देश के अगणित नेताओ को कारागार में डाल दिया गया और सामान्य जनता एवं समाचार – पत्रों की स्वातंत्र्य का गला घोंट स्वामीजी के विश्वास पर एक अनपेक्षित क्रूर आघात किया गया |

जनतंत्र और तानाशाह में भेद करते हुए सन्यासी ने लिखा कि जनतंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए विरोधको पर कुछ मात्र में अंकुश रखना मान्य था परन्तु समाचार पत्रों को केवल शासन – पुरस्कृत समाचार प्रकाशित करने और जनता की सच्ची भावनाओ को प्रकाशित न करने के लिए बाध्य करना , इस तरह की कृतिया जनतंत्र को जड़मूल से उखाड़नेवाली थी |

उन्होंने सन् 1957 ईसवी की एक घटना पर रोशनी डालते हुए लिखा कि जब श्रीमती गाँधी कांग्रेस की अध्यक्ष थी तब केरल में कम्यूनिस्टो का मंत्रिमंडल था जिसे उखाड़ फेकने में श्रीमती गाँधी ने क्रान्तिप्रवण जनता का नेतृत्व किया और उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई थी , वही कृतिया जब विरोधी पक्ष अपना रहा था , तो उन पर जनतंत्र – विरोधी होने का आरोप विचित्र जान पड़ता था |

उन्होंने परिस्थितियो को देखकर संवेदना व्यक्त करते हुए सुझाव दिया कि शासकीय और विरोधी पक्षों के लिए एक समान आचरण – विधान बनना आवश्यक था | दोनों ओर को नेताओ को बैठकर एक निम्नवाली बनाना चाहिए जिसमे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जनतंत्र दोनों सुरक्षित रहे |

अंत में उन्होंने जनता की स्वातंत्र्य और जनतंत्र के संरक्षण की भिक्षा मांगते हुए लिखा कि वे एक सन्यासी एवं भिक्षु थे और भिक्षा मांगना उनकी आदत रहेंगी |

Thursday, 21 November 2024

श्रीमती गाँधी को मधु जी का पत्र

 महारानी इंदिरा का भव्य स्वागत

“ श्रीमती इंदिरा गाँधी 24 अक्टूम्बर को अजमेर आएंगे , उनका भव्य स्वागत किया जाएगा और मार्ग में गुलाब के फूल बिछाए जायेंगे “ यह खबर पढ़कर मधु जी ने श्रीमती गाँधी को पत्र लिखा |

उन्होंने अपने पत्र में आशंका जताते हुए लिखा कि जब मुगले आज़म ने अजमेर का सफ़र चिलचिलाती धुप में नंगे पाँव किया और अग्रेंजो के बड़े लाट साहब के लिए भी ऐसा स्वागत नही हुआ तो  देश की दो – तिहाई कंगाल जनता की नेता श्रीमती गाँधी की शान का इतना अभद्र प्रदर्शन क्यों ?

उनका मानना था कि श्रीमती गाँधी और उनके सहयोगियों की गुलाब बिछी सड़क पर शोभायात्रा की कल्पना भी श्रीमती गाँधी को अच्छी नही लगेंगी क्युकि फूलो को पौधो पर देख मन प्रसन्न होता है , त्यागी उन्हें देवताओ पर चढ़ाते है , फूलदानी पर वे अच्छे लगते है और हमारे यहा औरते भी फूलो से अपनी – अपनी चोटी को सुशोभित करती है |

अंत में उन्होंने भगवान से प्रार्थना करते हुए लिखा कि श्रीमती गाँधी को ऐसे चापलूसों से भगवान बचाए रखने की कृपा करे |  

डा. कृष्णाबाई निंबकर का उनकी सहपाठी को पत्र

 यह आपका महाप्रसाद है 

यह पत्र श्रीमती गाँधी की सहपाठी , स्वतंत्रता सेनानी एवं सामाजिक कार्यक्रत्री डा. कृष्णाबाई निंबकर ने 23 जून 1976 को पूना से लिखा था |

उनके पत्र के अनुसार श्रीमती गाँधी के अच्छे चालचलन के लिए “तास” और “प्रावदा” नाम के रशियन पत्रों में उनकी बहुत प्रशंसा की गयी थी और सी.पी.आई ने भी उनकी रीति – निति एवं कार्यक्रमों को बहुत सहारा था | परन्तु आपातकाल की वजह से जनता उन पर से अपना विश्वास खो चुकी थी और सामान्य जनता उनकी ओर मित्रत्व की भावना से नही देख सकती और  पूर्णतः श्रीमती गाँधी से कट गयी थी |

कोई भला इंसान यदि उन्हें सत्य और निष्पक्ष बाते सुनाना चाहे तो उन तक नही पहुच सकती क्युकि वे पूर्णतः चाटुकारों , खुशामद खोरो तथा विदेशी गुप्तचरों से घिरी हुए थी | उन्होंने श्रीमती गाँधी को अपना ह्रदय टटोलकर देखने के लिए कहा क्युकि उन्होंने उच्च न्यायलय का चुनाव विषयक निर्णय न मानने का  पाप किया और जनता के सामने बहुत खराब उदहारण पेश किया था | श्रीमती गाँधी ने अपनी सत्ता का दुरूपयोग किया लेकिन बताया ऐसे जैसे वे भारतीय जनता की हितेशी हो और उनकी तुलना हिटलर से भी की गई |

उन्होंने  आगे अपने पत्र में लिखा था कि जैसे - जैसे श्रीमती गाँधी सत्य से अधिकाधिक दूर हटती जा रही थी , वैसे वैसे उनका गढ़  ढ़ह रहा था और उनकी नैतिक दृष्टि दुर्बल होती जा रही थी | श्रीमती गाँधी ने जो स्वांग रचा था उसके बारे में पत्र मे कथित है कि जब झुठाई का पर्दाफाश होगा , स्वांग उतर जाएगा और अधिकार समाप्त होगा , तब श्रीमती गाँधी को किसी की सहायता की आवश्यकता प्रतीत होगी और सद्विवेकबुद्धि से समझौता करना पड़ेगा | उस समय परमेश्वर के सम्मुख उन्हें पुरे सत्य के साथ पेश होना पड़ेगा |

परमेश्वर निश्चित ही श्रीमती गाँधी को क्षमा करे परन्तु जनता उन्हे क्षमा नही कर पायेंगे और जनता उनका मामला इतिहास को सौंप देंगी |

Wednesday, 20 November 2024

प्रभाकर शर्मा जी का अंतिम पत्र

 अंतरात्मा की हत्या


यह पत्र एक समर्पित सर्वोदयी कार्यकर्ता प्रभाकर शर्मा ने 11 अक्टूम्बर 1976  के दिन श्रीमती गाँधी (इंदिरा गाँधी ) को अपने आत्मदाह से पहले लिखा और 14 / 10 / 1976  को परवान में आत्मदहन कर लिया था | यह पत्र उन्होंने बंबई के मुख्यमंत्री और उनके मित्रो को भेजा था क्युकि वे जानते थे कि आपातकाल में  इस तरह का पत्र लिखना भी अपराध था |

आपातकाल को निंदनीय , जंगली और धिककार्निय बताते हुए उन्होंने पत्र में लिखा कि श्रीमती गाँधी ने अपने हाथ में सत्ता बनाये रखने के लिए भारत को एक अँधेरी गुफा ( आपातकाल ) की ओर धकेल दिया था और इसके लिए उन्होंने पुलिस तथा सेना को जनता के खिलाफ प्रयोग किया | उन्होंने अपने में यह भी लिखा कि श्रीमती गाँधी को अपने अनुतापयुक्त ह्रदय से , भारत की जनता से उनके अक्षम्य अपराधो के लिए , माफ़ी मांगनी चाहिए और भावी पिढ़िया आपातकाल को हमेशा एक अपराध और इसका समर्थन करने वालो दोषी के रूप में देखेंगी |

आपातकाल के दौरान ईश्वर और मानवता को भूल केन्द्रीय सरकार ने “जयप्रकाश जिंदाबाद” कहने या उनका समर्थन करने पर लोगो को गिरफ्तार कर लिया और अखबारो से लेखन – स्वतंत्रता  भी छीन ली और पूज्य विनोबाजी के आमरण अनशन के समाचार को भी दबा दिया गया | सारांश में कहा जाए तो श्रीमती गाँधी की मर्झी ही धर्मशास्त्र , इच्छा ही संस्कृति , गर्वोंमाद ही क़ानून , हुंकार ही न्याय और जो पाठ वे पढाये वही नीतिशास्त्र |

उन्होंने आपातकाल को स्वत्रंता और मानवता का गला घोटने वाला कदम बताया और गांधीजी के विचारो से मार्गदर्शन लेते हुए कहा कि स्वतंत्रता के बीना जीवन व्यर्थ है और देश को रचनात्मक कार्यो और अहिंसक शक्ति बनाने की भी बात कही थी |

अपने पत्र के माध्यम से उन्होंने देश की जनता से आग्रह भी किया कि शहरी वर्ग और ग्रामीण वर्ग को आपस में एक जुट होकर अहिंसक और रचनात्मक कार्यो में जुटना होगा |

अतः उनका बलिदान हमेशा स्वतंत्र और लोकतंत्र के लिए प्रेरणादायी रहेगा |