Tuesday, 4 March 2025

शास्त्री जी का निधन

 शास्त्री जी का निधन

अगस्त 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था | शास्त्री जी ने दृढ़ता तथा सुझभूझ का परिचय देकर देश को युद्ध में विजय दिलायी थी | इससे उनकी लोकप्रियता आकाश को छूने लगी परन्तु देश के दुर्भाग्य से ताशकंद में रहस्यपूर्ण परिस्थिति में दिनांक 11 जनवरी 1966 को उनकी मृत्यु हो गयी |

श्रीमती गांधी को खोया हुआ अवसर फिर से उपलब्ध हुआ था | इस बार कांग्रेस के अध्यक्ष कामराज और उनकी सिंडिकेट की पसंद एक मात्र श्रीमती गाँधी थी | उन्हें विश्वास था कि जिसे राममनोहर लोहिया ‘गूंगी गुड़िया’ कहते थे, वह उनके काबू में रह सकेगी | चुनाव हुआ और बहुत अधिक मतों से मोरारजी भाई की पराजय हुई |

कामराज नाडार तथा अन्य पुराने कांग्रेस,जिन्हें ‘सिंडिकेट’ नाम दिया था,अपनी विजय पर प्रसन्न भी हुए ,प्रधानमंत्री चुने जाने में इंदिराजी को छः राज्यों के मुख्यमंत्री का सहयोग मिला था | किन्तु जो मुख्यमंत्री उन्हें प्रधानमंत्री पद पर बैठा सकते है , वे उन्हें हटा भी सकते है | यह सोचकर उन्होंने सर्वप्रथम उन्ही मुख्यमंत्रियों की छटनी की | पंडित द्वारिकाप्रसाद मिश्र,मोहनलाल सुखाडिया आदि इसी के उदाहरण है |

श्रीमती इंदिरा गांधी जी इसी निश्चय के साथ प्रधानमंत्री बनी थी कि,”मैं इन नेताओं की कठपुतली नही बनूंगी और अपना पूर्ण वर्चस्व प्रस्थापित करुँगी |”

अतः स्वयं को राजनितिपटु समझनेवाले ये नेता न तो नेहरू खानदान को समझ सके और न इंदिराजी को | अपनी भूल का फल उन्हें थोड़े ही दिनों में दिखाई देने लगा था | 

Monday, 3 March 2025

असीम अहंभाव

 असीम अहंभाव

प.नेहरू ने अपने जीवनकाल में स्पष्ट रूप से किसी को भी अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था | परन्तु श्रीमती गाँधी को उन्होंने इतना आगे बढा दिया था कि स्वाभाविक रूप से पार्टी उन्हें ही यह उत्तरदायित्व प्रदान करती | किंतु उस समय मोरारजीभाई की हस्ती मार्ग में बाधक थी | कांग्रेस के अध्यक्ष कामराज को भी किसी दुर्बल प्रधानमंत्री की तलाश थी |

प.नेहरू के कार्यकाल में कांग्रेस अध्यक्ष के पद का पूर्णतः अमुल्यवान हो गया था | कामराजजी चाहते थे कि अब ऐसा प्रधानमंत्री बने कि जो कांग्रेस अध्यक्ष को सम्मान प्रदान करते रहे | इंदिराजी के लिए सर्वसामान्य सहमति संभव नही थी, इसलिए उन्होंने लालबहादुर शास्त्री के नाम सर्वसम्मति करा ली थी |

लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बन गये थे | यह बात श्रीमती गाँधी को बहुत खली थी | उन्होंने अपने साथियों से कहा “शास्त्रीजी ने एहसान फरामोशी (कृतघ्नता) की थी | भले ही कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद के लिए उनका चयन किया था, पर स्वयं उन्हें तो नेहरूजी की बेटी के पक्ष में उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना चाहिए था | ऐसा न कर उन्होंने नेहरूजी के साथ विश्वासघात किया था |"

कामराज की भांति इंदिराजी भी यही मानती थी कि शास्त्रीजी केवल कुछ ही काल इस पद पर रह सकेंगे और शासन-कार्य का भरी बोझ न सँभलने के कारण हट जायेंगे | यही सोच कर अनमनेपन से वे उनके मंत्रिमंडल में सूचना तथा प्रसारण मंत्री के रूप में सहभागी हो गयी थे, परन्तु उन्होंने देखा कि शास्त्रीजी बड़ी कुशलता से अपना उत्तरदायित्व निभा रहे थे | उनकी आशा निराशा में बदल गयी थी |

अब उनकी पूर्वकमुनिस्ट इंद्रकुमार गुजराल,मोहन कुमार मंगलम,नंदिनी सत्पथी आदि से साँगाँठ हो गयी थी | इनका एक ‘जिंजर ग्रुप’ बन गया था | वे लोग लालबहादुर शास्त्रीजी की हर बात पर टिका-टिप्पणी करने लगे | सरकार को अंदर से तोड़ने का उद्योग उन्होंने इस प्रकार प्रारंभ कर दिया था | जब इंदिरा गांधी शास्त्री जी के समान व्यक्ति को सहन नही कर सकती थी तो अन्य किसी व्यक्ति के हाथ में सत्ता चली जाय यह वे कैसे स्वीकार कर सकती थी ?

अतः नेहरू परिवार ही इस देश पर शासन करने योग्य है , यह अहंभाव श्रीमती गाँधी में इस सीमा तक पहुँच गया था कि वे यह मानकर चलती थी कि उनके पिता की मृत्यु के पश्चात उस स्थान पर बैठना उनका दैवी अधिकार था |

Thursday, 27 February 2025

नेहरूजी के सपने

 नेहरूजी के सपने

5 अक्टूबर 1937 के “माडर्न रिव्यु” में ‘राष्ट्रपति जवाहरलालजी की जय’ नाम का एक लेख छपा था | ऐसा माना जाता है कि वह नेहरूजी का ही लिखा हुआ था | उसमें लिखा था कि :-

“बस थोडा सा मोड़ दिया नही कि जवाहरलालजी तानाशाह बन सकता है, क्योंकि जनतंत्र की धीमी चाल उसे पूर्णतः अमान्य है | वह समाजवाद और जनतंत्र की नारेबाज़ी अवश्य ही करता रहेगा, क्योंकि वह जानता है कि तानाशाही को इन्हीं शब्दप्रयोगो ने चढ़ाया और बढ़ाया है | बाद में उन्हें फेंका गया |

कार्य शीघ्र करने की उसकी तीर्व इच्छा रहती है | जो उसे अप्रिय हो, उसे वह एक ही फटकारे से उड़ा देता है और वहाँ नयी चीज प्रस्थापित करता है | मंदगति जनतंत्र उसे कभी नही भायेगा | क्या यह संभव नही कि जवाहरलाल खुद को सीजर बनाने के स्वप्न देखे ?”

जिन बातों के नेहरूजी ने केवल स्वप्न में देखे थे, उन्हें उनकी पुत्री ने प्रत्यक्ष में उतार दिया था |

असहमति के प्रति पूर्ण असहिष्णुता, सत्ता के केन्द्रीकरण की वृत्ति, सक्षम तथा प्रभावी सहयोगियों के पर काटने तथा चाटुकारों को बड़प्पन देने की नीति, सरकार और पार्टी दोनों को अपनी मुठ्ठी में रखने की लालसा, आलोचना के प्रति असहनशीलता, अपने को बचाने हेतु अपने सहयोगियों को बलि का बकरा बनाने की कृतघ्नता आदि विकृतियाँ, जो आगे चल कर इंदिरा जी के चरित्र में विष्वल्ली की भाति फैली , वे उन्हें बचपन से ही प्राप्त हुई थी |  

Monday, 24 February 2025

कारण – परंपरा

 कारण – परंपरा

सामान्यतः यह माना जाता है कि दिनांक 12 जून 1975 को प्रयागराज (इलाहाबाद) उच्च न्यायालय द्वारा दिए गये निर्णय के कारण ही श्रीमती गाँधी ने यह अतिवादी पग उठाया था | किन्तु वास्तव में इसके पीछे एक लंबी कहानी थी | नेहरू खानदान का स्वभाव, कांग्रेस का ढाँचा, बड़े-बड़े नेताओं का रवैय्या,इंदिराजी का पूर्वचरित्र, उनकी कार्यशैली, बंगला देश की विजय से उत्पन्न अभियान, थोथे नारों की कलई खुलने के कारण जनता का उभडा हुआ रोष और असंतोष, गुजरात का आंदोलन और कांग्रेस का पराभव, जयप्रकाशजी का राजनीतिक क्षेत्र में पुनरागमन आदि अनेक कारणों के फलस्वरूप इंदिराजी इस सीमा तक पहुँची |  

जिस वातावरण और परिस्थिति में श्रीमती गाँधी पली थी उन्ही के फलस्वरूप वे अत्यंत हठी, आत्मकेंद्रित, स्वार्थी, अपना महत्त्व बनाये रखने के लिए सजग, असहिष्णु, असुरक्षा की भावना से ग्रस्त, अहंकारी, दुःसाहसी तथा निर्मम बनी थी |

इंदिराजी जब पंद्रह वर्ष की थी, तब स्वयं नेहरूजी उनके बारे में अपनी बहिन श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित को देहरादून जिला कारागार से लिखा था –“वह हम दोनों ( माता-पिता की) तथा अन्यो की पूर्णतः उपेक्षा करती है | ऐसा क्यों है ? मुझे लगता है कि इंदु असामान्यतः कल्पना-जगत में विहार करती है | वह स्वयंकेन्द्रित अथवा आत्मलीन है | सचमुच, मुझे ऐसा लगता है कि अनजाने में ही वह बहुत स्वार्थी बन गयी है….”

जिद्दीपन तो उनमें कूट-कूट कर भरा था | उस समय इंदिरा ऑक्सफ़ोर्ड में थी | नेहरुजी उन्हें वापस ले आये, उन्होंने वहा से निकलते हुए कहा कि “मैं यहीं रहना चाहती हूँ, आपके साथ नही आना चाहती | यदि आप अनुमति नही देते, तो भले ही मैं चलूंगी पर आपसे बोलूंगी नहीं |” नेहरूजी ने सोचा – आखिर बच्ची है,यो ही कह दिया होगा | परंतु नेहरूजी हैरान रह गये कि उनकी प्रिय इंदु न तो पंद्रह दिनों की जहाजी यात्रा में और न बंबई से प्रयाग तक के रेल प्रवास में उनसे बोली | अंततः नेहरूजी ने हार मान ली और उन्होंने तुरंत ही इंग्लैण्ड भेज दिया था |

इंदु ने स्वयं अपनी इच्छा से फ़िरोज़ गाँधी से विवाह करने का निश्चय कर लिया था | यह विवाह पिता को तथा उनकी बुआओ को कतई पसंद नही था | पिता और महात्मा गाँधी दोनों ने इंदु को समझाया, परन्तु वह नही मानी | मार्च 1982 में फिरोज-इंदिरा विवाह प्रयाग में बहुत सादे ढंग से संपन्न हुआ था | इंदिराजी का वैवाहिक जीवन भी सुखी नही था |

इंदिराजी ने स्वयं भी एक स्थान पर कहा था –“राजनीतिक संघर्षो के कारण मेरा बचपन असामान्य परिस्थिति में कटा | मैं सदैव अकेलापन और असुरक्षितता अनुभव करती थी |”

अतः पंडित नेहरू ने एक प्रसंग पर कहा था, ”यह इतनी जिद्दी है कि इसे कोई भी पद नही दिए जाने चाहिए |”

कराल रात्रि की ओर - लोकतंत्र की हत्या

 कराल रात्रि की ओर

आपातकाल के कुछ महीने पहले जयप्रकाशजी ने सेकड़ो भाषण दिए तथा कुछ दिन पहले से वे सतत् भ्रमण कर रहे थे तथा अनेक नगरो और ग्रामो में जाकर वे जनजागरण कर देश की परिस्थिति से सब को अवगत करा रहे थे | विभिन्न दलों के नेताओं से भी विशेष रूप से मिलते थे और उनसे साग्रह निवेदन करते रहे कि “देश हिट के लिए सभी विरोधी पक्षों को एक जुट हो जाना चाहिए अन्यथा देश में तानशाही स्थापित होगी, घरानाशाही चलेगी, जनता दुखी हो जायेगी |”

दि.25 जून 1975 की शाम को जयप्रकाशजी बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे थे | सायंकाल रामलीला मैदान, सभा में उन्हें जो उत्साह दिखाई दिया, जिससे उनका मन गदगद हो उठा, उस विशाल जनसमूह के सम्मुख वे बोल रहे थे, उनका भाषण आपही प्रभावी हो गया था | सभा आयोजक भी संतुष्ट थे | उस विशाल जनसभा से हज़ारो लोग लौट रहे थे, तब प्रत्येक धूलिकण से मानो यही माँग उठ रही थी कि “प्रधानमंत्री त्यागपत्र दे और वास्तविक गणतंत्र की परंपरा का पालन करे |” आपही लोग नारे लगा रहे थे –“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है|”  

जनता को नया प्रकाश दिखाई दे रहा था, देश को तानशाही से बचाने के लिए मार्गो का निर्माण हो रहा था, तभी 1,सफदरगंज भवन इंदिराजी के बंगले पर कुटिल योजनाओं को आकार देकर, लोकतंत्र की हत्या का जघन्य षड्यंत्र रचा जा रहा था | उस रात्रि जब सारा देश सो रहा था, तब श्रीमती गाँधी को सत्ता में बने रहने के लिए चंडाल-चौकड़ी के सदस्य सिद्धार्थशंकर राय,संजय गाँधी, बंसीलाल, धवन आदि भारत के 28 वर्षीय प्रजातंत्र को समाप्त करने के षड्यंत्र को अंतिम रूप दे रहे थे | षड्यंत्र की पूर्वयोजना बना लेने के बाद श्रीमती गाँधी और सिद्धार्थशंकर राय राष्ट्रपति भवन चले गये |

राष्ट्रपति श्री फखरुद्दीन अली भी इस बात से अवगत थे कि उन्हें उस रात कुछ विशेष बेढंगा कार्य करना था | वे तो प्रधानमंत्री के एहसान के भार से पहले ही दबे हुए थे | भारत का सर्वोच्च पद उन्होंने अपनी योग्यता से नही, श्रीमती गाँधी की कृपा से मिला था | राष्ट्रपति भवन में सिद्धार्थशंकर ने जब राष्ट्रपति के समक्ष आपातकाल विषयक विषद विवेचन किया तब उन्होंने राष्ट्रपति पद के उत्तरदायित्व को भुलाकर अपने व्यक्तिगत लाभ को संभालना उचित समझा और बिना कोई ना-नुच करते हुए उन्होंने चुपचाप धवन के लाये हुए आपातकाल के प्रारूप पर हस्ताक्षर कर दिए थे |

कालचक्र उल्टा घुमने लगा,उस समय मध्य रात्रि के लिए केवल पंद्रह मिनट शेष थे | देशभर में प्रमुख नेताओं को बंदी बनाने के आदेश मुख्यमंत्रियों तथा पुलिस अधिकारियों को दिए जा रहे थे और साथ ही आतंरिक आपातकाल की घोषणा का प्रारूप तैयार किया जा रहा था |

अतः उसी रात सम्पूर्ण देश में गणतंत्र की वासंतिक बयार बंद हो गयी और एकाधिकारी सत्ता की ठिठुराने वाली, जलाने वाली, विषम हवाए बहने लगी थी |     

Thursday, 20 February 2025

स्वयंसेवको के आपस में लिखे पत्र : लालकृष्ण आडवाणी द्वारा कार्यकर्ताओं को लिखा पत्र

 तानाशाही से समझौता नही

लालकृष्ण आडवाणी ने बंगलौर कारागार से 15/ 8/ 1976 को कार्यकर्ताओं को लिखा था |

लालकृष्ण आडवाणी ने अपने पत्र ने लिखा कि स्थान-स्थान पर उन्हें शारीरिक यातनाए सहन करनी पड़ी थी | अनेक बंधुओ ने सीचको के पीछे प्राण गँवाये थे | सैकड़ो परिवार आर्थिक दृष्टि से बरबाद हो गए थे | लोकतंत्र की पुनःस्थापना के लिए चल रहे वर्तमान यज्ञ में उनके कार्यकर्ताओं ने जो बलिदान किया था, उस पर वे गर्व कर सकते थे | जनसंघ के संस्थापक डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी लोकतंत्र के अनन्य उपासक थे | उनके अनुयायी तानाशाही के साथ समझौता नही कर सकते थे | तब ऐसे सहसो कार्यकर्ता थे जो सर्वस्व की बाजी लगाकर मैदान में उतरे हुए थे |

उन्होंने कार्यकर्ताओ को संबोधित करते हुए यह भी लिखा कि “हो सकता है आप भी उनमे से एक है | यदि अब तक नहीं है, तो इसी क्षण शामिल हो जाइए” |

इस पत्र द्वारा वे इस बात पर बल देना चाहते थे कि उनकी मर्यादा में रहते हुए भी वे कई प्रकार से लोकतंत्र की सेवा कर सकते है | सबसे बड़ी सेवा है, चारों ओर भय के वातावरण को विदीर्ण करना | अपने व्यवसाय-क्षेत्र में, अपने मित्रवर्ग में, सदैव सत्य, साहसी तथा स्वाभिमान की भाषा बोले | ऐसे वातावरण का निर्माण करे जिससे चापलूसी और चाटुकारिता के लिए लोगो के मन में सहज ग्लानि पैदा हो |

अतः गत वर्ष कार्यकर्ताओं ने जितना कष्ट सहा था, वह वास्तव में लोकतंत्रीय मान्यता के लिए दी गयी कीमत थी | इसके अलावा भी उनकी एक अपेक्षा थी कि वे संघर्षरत कार्यकर्ताओ का तन-मन-धन से सहयोग करे |   

Wednesday, 19 February 2025

स्वयंसेवको के आपस में लिखे पत्र : अटलविहारी वाजपेयी द्वारा स्वयंसेवक बंधु को लिखा पत्र

 न दैन्यं न पलायनम्

अटलविहारी वाजपेयी ने स्वयंसेवक बंधु को 25/09 /1976 को आयुविज्ञान संस्थान अंसारी नगर, नयी दिल्ली से लिखा था |

पत्र की शुरुआत करते हुए अटलजी ने लिखा कि पत्र में क्षीरसागरजी के आकस्मिक देहावसान का समाचार सुनकर गहरा धक्का लगा था | गत 16 महीनो के संघर्षकाल में जो कार्यकर्ता हमेशा के लिए विदा हुए थे , उनकी समृति सबके ह्रदयो में सदैव ताज़ा रहेगी | अपने आदर्शो और विश्वासों के लिए काम करते हुए स्वाभाविक रूप से मृत्यु का वरण करने वाले प्रिय होते किन्तु जो युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त होते वे लोग तो प्रेरणादायक बन जाते है |

आगामी 29 अक्टूबर को भारतीय जनसंघ उनके जीवन के 25 वर्ष पूर्ण कर लेंगे | आश्रम व्यवस्था के अनुसार 25 वर्ष के बाद व्यक्ति का परिवार-जीवन प्रारंभ होता | संगठन के नाते अब उन्हें भी राष्ट्रवाद, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय में निष्ठा रखनेवाले सभी भारतीयों को, बिना किसी भेदभाव के, एक परिवार मानकर चलना था और तदनुसार उन्हें अपना दायित्व का निर्वाह करना था |

जनसंघ के संस्थापक प्रधान, हुतात्मा डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने संसद में राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक गुट का गठन कर जिस ऐतिहासिक प्रक्रिया को प्रारंभ किया था, अब उसे अंतिम रूप देने का अवसर आ गया था |

25 वर्ष के कालखंड में उन्होंने अनेक उतार-चढ़ाव देखे थे | प्रारंभिक विफलता ने उन्हें निराश नही किया, प्रयत्नसाध्य सफलता हमें विवेकभ्रष्ट नही कर सकी थी | राष्ट्रीय संकट के प्रत्येक अवसर पर वे प्रथम पंक्ति में रहते थे | उस दिन, जबकि एक भयावह अंधेरा उनकी अस्मिता के आलोक को निगल जाने को तुला था,उन्हें ध्येयसिद्धि के लिए जीने, जूझने और आवश्यकता पड़ने पर मर मिटने के उनके संकल्प को दोहराना होगा |

शहीद की मौत मरने का सौभाग्य सब को कहाँ मिलता ? अपने पत्र के माध्यम से सभी काराबद्ध कार्यकर्ताओं-बहनों और भाइयो-को उन्होंने शुभकामाए और आदर दिया और लिखा कि उनका कष्ट-सहन व्यर्थ नही जाएगा |

“न दैन्यं, न पलायनम्” – अर्जुन की यह दोहरी प्रतिज्ञा ही सबका उद्देश्य होना चाहिए | काया को कैद कर, या दिल को दुखाकर जो यह समझते है कि मुक्ति की माँग को मिटा देंगे, उन्हें हमेशा पछताना पड़ता है | पशुबल परास्त होता है और अंततः आत्मबल की विजय होती है |