असीम अहंभाव
प.नेहरू
ने अपने जीवनकाल में स्पष्ट रूप से किसी को भी अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया
था | परन्तु श्रीमती गाँधी को उन्होंने इतना आगे बढा दिया था कि स्वाभाविक रूप से
पार्टी उन्हें ही यह उत्तरदायित्व प्रदान करती | किंतु उस समय मोरारजीभाई की हस्ती
मार्ग में बाधक थी | कांग्रेस के अध्यक्ष कामराज को भी किसी दुर्बल प्रधानमंत्री
की तलाश थी |
प.नेहरू
के कार्यकाल में कांग्रेस अध्यक्ष के पद का पूर्णतः अमुल्यवान हो गया था |
कामराजजी चाहते थे कि अब ऐसा प्रधानमंत्री बने कि जो कांग्रेस अध्यक्ष को सम्मान
प्रदान करते रहे | इंदिराजी के लिए सर्वसामान्य सहमति संभव नही थी, इसलिए उन्होंने
लालबहादुर शास्त्री के नाम सर्वसम्मति करा ली थी |
लाल
बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बन गये थे | यह बात श्रीमती गाँधी को बहुत खली थी |
उन्होंने अपने साथियों से कहा “शास्त्रीजी ने एहसान फरामोशी (कृतघ्नता) की थी | भले
ही कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद के लिए उनका चयन किया था, पर स्वयं उन्हें तो
नेहरूजी की बेटी के पक्ष में उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना चाहिए था | ऐसा न कर
उन्होंने नेहरूजी के साथ विश्वासघात किया था |"
कामराज
की भांति इंदिराजी भी यही मानती थी कि शास्त्रीजी केवल कुछ ही काल इस पद पर रह
सकेंगे और शासन-कार्य का भरी बोझ न सँभलने के कारण हट जायेंगे | यही सोच कर अनमनेपन
से वे उनके मंत्रिमंडल में सूचना तथा प्रसारण मंत्री के रूप में सहभागी हो गयी थे,
परन्तु उन्होंने देखा कि शास्त्रीजी बड़ी कुशलता से अपना उत्तरदायित्व निभा रहे थे
| उनकी आशा निराशा में बदल गयी थी |
अब
उनकी पूर्वकमुनिस्ट इंद्रकुमार गुजराल,मोहन कुमार मंगलम,नंदिनी सत्पथी आदि से साँगाँठ
हो गयी थी | इनका एक ‘जिंजर ग्रुप’ बन गया था | वे लोग लालबहादुर शास्त्रीजी की हर
बात पर टिका-टिप्पणी करने लगे | सरकार को अंदर से तोड़ने का उद्योग उन्होंने इस
प्रकार प्रारंभ कर दिया था | जब इंदिरा गांधी शास्त्री जी के समान व्यक्ति को सहन
नही कर सकती थी तो अन्य किसी व्यक्ति के हाथ में सत्ता चली जाय यह वे कैसे स्वीकार
कर सकती थी ?
अतः
नेहरू परिवार ही इस देश पर शासन करने योग्य है , यह अहंभाव श्रीमती गाँधी में इस
सीमा तक पहुँच गया था कि वे यह मानकर चलती थी कि उनके पिता की मृत्यु के पश्चात उस
स्थान पर बैठना उनका दैवी अधिकार था |
No comments:
Post a Comment