संघ – कार्य का स्वरुप
श्री बालासाहब
देवरस के इंदिराजी को लिखे गये पत्र |
15 अगस्त 1975
को देहली के लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करते हुए जो भाषण श्रीमती गाँघी ने
दिया उसे देवरसजी ने गौर से सुना | 8 जुलाई 1975 को केंद्र सरकार ने एक विशेष आदेश
निकालकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया था | प्रतिबंध के संबंध में
अखबारों में से जो जानकारी मिली थी उससे ऐसा मालूम होता था कि संघ के, उसके
स्वयंसेवकों के एवं उसके जिम्मेदार कार्यकर्ताओं के कारनामे देश की अंतर्गत
सुरक्षितता , सार्वजनिक शांतता एवं व्यवस्था में बधास्वरूप थे |
संघ पर कुछ लोग
, कभी- कभी आरोप करते थे | उन सभी आरोपों का खंडन करना इस पत्र में संभव नही था ,
फिर भी यह स्पष्ट करना तो आवश्यक था कि संघ ने कभी भी हिंसाचार किये नही और ना ऐसी
सिख संघ ने किसी को दी | देश की आतंरिक सुरक्षा , सार्वजनिक शांतता एवं व्यवस्था
को खतरा पहुँचे, ऐसा कोई भी काम कभी भी रा.स्व.संघ का हितेशी नही था | देश में दंगे
, फसाद की अनेक घटनाए हुई किन्तु उनमे संघ के स्वयंसेवकों का हाथ था , ऐसा किसी भी
न्यायालय के निर्णय से अथवा सरकार द्वारा नियुक्त किसी आयोग की रिपोर्ट से प्रतीत
नहीं होता था |
संघ का कार्य
समूचे भारत में सब दूर फैला हुआ था | उसमे समाज के सभी वर्गों , स्तरों के लोग थे
| अनेक त्यागी कार्यकर्त्ता संघ में थे | संघ का सारा कार्य निःस्वार्थ भावना पर
आधारित था | संघ की ऐसी शक्ति का योजनापूर्वक उपयोग देश के उत्थान के लिए होना
जरुरी था |
राष्ट्रिय
स्वयंसेवक संघ पर साम्प्रदायिकता का आरोप करने वाले भी कुछ लोग थे , पर उनका यह
आरोप भी निराधार था | संघ में मुसलमानों से द्वेष करना सिखाया जाता था , यह कहना
भी सर्वथा असत्य था | संघ में किसी भी धर्म के संबंध में अनुचित शब्द का भी प्रयोग
नहीं होता था , इतना ही नही बल्कि “सर्व धर्म संभाव” यानि “एकंसद विप्रा बहुधा
वदन्ति” – यह जो हिन्दुओ की विशेषता थी, उसी को संघ सर्वोपरि मानता था | सब को
अपनी उपासना -पद्धति की स्वतंत्रता रहे, ऐसी संघ की धारणा थी | सभी धर्मी लोगो से
संघ के अनेक स्वयंसेवकों के अच्छे आत्मीयतापूर्ण संबंध थे | अतः राष्ट्रिय
स्वयंसेवक संघ ने अपना कार्य हिन्दू समाज तक ही मर्यादित रखा था |
हिन्दू समाज के
प्रत्येक व्यक्ति को उत्तम नागरिक, देशभक्त एवं सच्चरित्र बनाने का कार्य
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निःस्वार्थ भाव से कर रहा था | अपने ही शासन में उस पर
प्रतिबंध लगे , यह तो मात्र दैवदुर्विलास था |
पत्र के अंत
में , संघ के संबंध में पूर्वाग्रह छोड़कर श्रीमती गाँधी विचार करे , ऐसी देवरसजी ने
प्रार्थना की थी | प्रजातंत्रीय देश में संगठन स्वातंत्र्य का जो मूलभूत अधिकार
होता था, उसको ध्यान में लेकर , रा.स्व.संघ पर जो प्रतिबंध थे उसे हटाये , ये भी उन्होंने
निवेदन किया था |
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