तीर्थक्षेत्र या साधु का आश्रम
अजितकुमार
ने गुलबर्गा कारागार से 6 / 5 / 1976 को अपनी बहिन को जो पत्र लिखा था उसका यह
परिच्छेद बहुत मार्मिक था :-
वहा
तो वास्तव में खनखनाती बेड़ियों का , बड़े – बड़े तालों का , सकीचो का और दीवारों का
साम्राज्य था | वहा के वातावरण में भारी हथकड़ियाँ , न खुलनेवाले ताले , न
झुकनेवाले सीकचे और रोती सूरत वाली दीवारों के कारण म्लानता बनी रहती | परंतु उन
सब ने मिलकर यह सब कुछ एकदम उल्टा कर दिया था | अब वहाँ , प्रातः स्मरण होता था ,
प्रभाती गायी जाती थी , वेदमंत्रो के उदघोष सुनाई पड़ते थे | कही सूर्यनमस्कार ,
कही मातृवंदन , चर्चा , कही पूजापाठ , आसन , प्राणायाम , ध्यानधारणा , खेल , चहलकदमी
, अध्ययन – अध्यापन , भाषण – प्रवचन ...... यही सब दिखाई दे रहा था |
किसी को भी भ्रम हो सकता था कि वे कहा आ गये थे , यह कोई तीर्थक्षेत्र था या साधु का आश्रम था ?
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